प्रस्तावनाखंड : विभाग तिसरा. बुद्धपूर्वजग
प्रकरण ५ वें.
वेदकालांतील शब्दसृष्टि.
संख्या.
त्रफ्मवाचक [ॠग्वेद]
अष्टम | १द्वादश | पंचम |
एकएक | द्वितीय | प्रथम |
तुरीय | नवम | श्रेणी |
तृतीय | पंक्ति | षोहाळ |
[अथर्ववेद] | ||
अष्टम | दशम | वितृतीय |
अष्टाविंश | द्वादश | शततम |
एकविंश | द्वितीय | षष्ठ |
एकादश | पंच | षष्ठि |
तुरीय | पंचम | षोडश |
तृतीय | प्रथम | सप्तम |
संख्यावाचक [ॠग्वेद] | ||
अमित | त्रिपंचाशत् | पंचदश |
अशीति | त्रिशत | पंचाशत् |
अष्ट | त्रिसप्तति | पुरु (बहु) |
एक |
दश |
लक्ष (संख्या) |
एकक | दशति |
विंशति |
एकशत |
दशभुजि (दशगुणित) | शत |
एकादश |
शतग्विन् (शतगुणित) | |
चतसृ |
द्वक | |
चतुर्दश | द्वयी |
शतिनी |
चतु:शत | द्वयु | षट्त्रिंशत् |
चतु:सहस्त्र | द्वादश | षड्विधान (षड्विध) |
चतुस्त्रिंशत् | द्वि | |
चत्वारिंशत् | नव | षष् |
तिसृ |
नवति |
षष्ठि |
त्रयस्त्रिंशत् | नियुत | सप्त |
त्रिंशत् | पंक्ति | सप्तति |
त्रिक | पंच | सहस्त्र |
[तै.सं.] |
||
अयुत | अष्टन् | अष्टाचत्वारिंशत् |
अर्वुद | अष्टम | अष्टाचत्वारिंशदक्षरा |
अष्टादशन् | दशन् | पञ्चदश |
अष्टाविंशति | द्वात्रिंशत् | पञ्चनवति |
उभय | द्वादशन् | पञ्चम |
एकत्रिंशत् | द्वादशी | पञ्चविंशं |
एकविंश | द्वाविंश | पञ्चाशत् |
एकादशन् | द्वि | पाङ्क्त |
एकादशिनी | द्वितीय | प्रथम |
एकादशी | द्विषाहस्त्र | प्रयुत |
एकैक | नव | सप्तन् |
चतु: | नवचत्वारिंशत् | सप्तति |
तिसृ | नवति | सप्तदशन् |
तिसृतिसृ | नवदशन् | सप्तम |
त्रयस्त्रिंशत् | नवम | सप्तमी |
त्रिंशत् | नवविंशति | सप्तविंशति |
त्रि | नवषष्ठि | सविंश |
त्रिणवत्रयस्त्रिं शत् | नवाशीति | सहस्त्र |
त्रिषाहस्त्र | न्यर्बुद | साहस्त्र |
त्रिसप्त | पञ्चन् | साहस्त्रवत् |
[अथर्ववेद] | ||
अशीति | चत्वारि | पङ्क्ति |
अष्ट | चत्वारिंशत् | पञ्चंदश |
अष्टि | तिसृ | पर:सहस्त्र |
एक | त्रय | पृथक्सहस्त्र |
एकशत | त्रयस्त्रिंशत् | लक्ष |
एकैका | त्रिपञ्चाशी | विंशति |
एकोनविंशति | त्रिसप्त | शत |
चतस्त्र | दौव (द्वौ) | षष् |
चतुरुत्तर | द्वि | सप्तति |
चतुष्टय | नवति | सहस्त्र |
[वा.सं.] |
३दशन्
१द्वादश.- बारांचा समुदाय म्हणून हा शब्द ॠग्वेदामध्ये वर्षाला लाविलेला आहे.
२पंक्ति.-मूळ या शब्दाचा अर्थ पांचाचा समुदाय असा असून ॠग्वेदापासून याचा अर्थ ओळ असा आहे. तैत्तिरीय आरण्यकांत विशिष्ट विधीनें पावन होणा-या पितरांच्या विशिष्ट संख्येपर्यंत परंपरेस हा शब्द लाविलेला आढळतो.
३दशन्.-'दहा' हा शब्द वैदिक काळाच्या आर्य लोकांचा व एकंदरीत सर्व आर्य लोकांचा संख्यावाचनपद्धतीचा मूळ पाया होता. पण हिंदुस्थानांतल्या आर्य लोकांचा हा विशेष लक्षांत ठेवण्यासारखा आहे कीं, फार प्राचीन काळापासून या लोकांना अतिशय मोठमोठे आंकडे ठाऊक होते. पण इतर देशाच्या आर्य लोकांनां हजारपर्यंतच संख्यावाचन करतां येत असे. वाजसनेयि संहितेमध्यें एक (१); दश (१०); शत (१००); सहस्त्र (१०००); अयुत (१००००); नियुत (१०००००); प्रयुत (१००००००); अर्बुद (१०००००००); न्यर्बुद (१००००००००); समुद्र (१०००००००००); मध्य (१००००००००००); अंत (१०००००००००००); परार्ध (१००००००००००००); अशी संख्यांची यादी दिलेली आहे. काठकसंहितेमध्यें हीच यादी सांपडते; पण नियुत व प्रयुत यांचीं स्थानें बदललेली आहेत व न्यर्बुदानंतर बद्ध ही संख्या मध्येच आल्याकारणानें समुद्राची किंमत एका शून्यानें वाढली म्हणजे १०००००००००० झाली. तैत्तिरीय संहितेमध्यें वाजसनेयि संहितेंत दिलेल्या यादीप्रमाणेंच दोनदां तीच यादी आलेली आहे. मैत्रायणी संहितेमध्यें अयुत प्रयुत, नंतर पुन: अयुत, नंतर अर्बुद, न्यर्बुद, समुद्र, मध्य, अंत, परार्ध असा क्रम आहे. पंचविंश ब्राह्मणांत वाजप्तनेयि संहितेंत दिलेली याद न्यर्बुदापंर्यंत आलेली आहे व नंतर निखर्वक, बद्व, अक्षित व शेवटी गो=१०००००००००००० अशी आहे. जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मणामध्यें निखर्वक याच्या ऐवजी निखर्व, बद्व याच्याबद्दल पद्म व शेवटी 'अक्षितिर् व्योमांत:' आलेलें आहे. शांखायन श्रौतसूत्रामध्यें न्यर्बुदानंतर निखर्कद, समुद्र, सलिल, अंत्य व अनंत (१०००००००००००००) असा क्रम आहे. संख्येचा क्रम जरी इतक्या दूरवर गेला असला तरी अयुताच्या पलीकडे या संख्याक्रमास फारसें महत्व नाहीं. बद्व हा शब्द फक्त ऐतरेय ब्राह्मणांत आलेला आहे, पण तेथें तरी त्याला संख्यात्मक निश्चितार्थ नाहीं; व पुढें पुढें या पुढच्या संख्यांत घोंटाळा आहे. पंचविंश ब्राह्मणांत एक मौजेची गणितश्रेढी सांपडते. या ठिकाणीं यज्ञामधल्या दानांची याद दिलेली आहे व तिजमध्यें प्रत्येक पुढची संख्या मागच्या संख्येची दुप्पट आहे. पहिली सुरुवातीची संख्या द्वादश-मानम् (हिरण्यम्) म्हणजे १२ च्या किमतीचें यांतील आहे; पुढें २४, ४८,९६, १९२, ३८४, ७६८, १५३६, ३०७२ व नंतर 'द्वे अष्टाविंशतिशत माने' म्हणजे २X१२८X२४ (येथें १२ हें एकच मान नाहीं तर २४ मानाची संख्या हें मान आहे) = ६१४४ ही संख्या व त्यापुढें १२२८८, २४५७६, ४९१५२, ९८३०४, १९६६०८ व ३९३२१६ या संख्या आहेत. मोठमोठया आंकडयांबरोबर शतपथ ब्राह्मणांत दिलेली कालाची तात्त्विक व सूक्ष्म विभागणी तुलना करण्यासारखी आहे. या ब्राह्मणांत एका दिवसाचे १५ मुहूर्त कल्पिले आहेत. एक मुहूर्त म्हणजे १५ क्षिप्र; १क्षिप्र म्हणजे १५ एतर्ही; १ एतर्ही म्हणजे १५ इदानी व १ इदानि म्हणजे १५ प्राण अशी दिवसाची विभागणी केलेली आहे. शांखायनश्रौतसूत्रामध्यें दिवसाची दशांश पद्धतीनें वांटणी केलेली आहे. एक दिवस म्हणजे १५ मुहूर्त, एक मुहूर्त म्हणजे १० निमेष व एक निमेष म्हणजे १० ध्वंसी होत. वैदिक वाङ्मयांत कांही थोडे अपूर्णांकहि आलेले आहेत. अर्ध, पाद, शफ व कला या १/२, १/४, १/८, १/१६ असें दर्शवितात. पण यांपैकी १/२ व १/४ या नेहमीच्या प्रचारांतल्या आहेत. तृतीय याचा अर्थ एकतृतीयांश असा होतो. ॠग्वेदामध्यें इंद्र व विष्णु यांनीं १००० या संख्येला तीन या संख्येनें भागलें असा उल्लेख आहे. पण तें कशा रीतीनें हें समजत नाही. त्रिपाद् म्हणजे ३/४ असा अर्थ आहे.