प्रस्तावनाखंड : विभाग तिसरा. बुद्धपूर्वजग
प्रकरण ५ वें.
वेदकालांतील शब्दसृष्टि.
मेघनामे [ॠग्वेद]
*अद्रि | अन्तरिक्षप्रुत् | *अभ्र |
अंतरिक्ष | अन्तरिक्षसत् | अर्णोवृत |
अन्तरिक्षप्र | अब्दि | *अश्न x |
* अश्मन् | जिम्हबार | * बलाहक |
* असुर | जीमूत | भूम्य |
* अहि | दिविज | * ३मेघ |
आरंगर (सशब्द- धन) | दिवियोनि | * रवैत x |
दिव्य | * रौहिण | |
उत्स | * दृति | वर्धयन्ती |
उदमेध | दृषत् | वनधीति |
उदवाह | द्युगत् | * वराह x |
* उपर x | द्रप्सिन् | * वल |
* उपल | २धनु | * वलिशान x |
ऊधस् | धन्वच्युत् | विद्युत् |
* ओदन | नभ | विभुक्रतु |
कबंध | नभोज | * वृत्र |
* १कोश | नभोजु | * वृषन्धि x |
* गिरि | नभस्मय | वृषप्रभर्मन् |
* गोत्र | नीचीनबार | वृष्टिमत् |
* ग्रावन् | नीलपृष्ठ | व्योमसत् |
घन | पर्जन्यरेतस् | * व्रज |
घृतदुह् | * पर्वत | * शंबर x |
* चमस् | * पुरुभोजस् x | ४शिरिंबिठ |
* चरु x | * फलिग | ५स्तनयित्नु |
[तै.सं.] | ||
अद्रि | दृति | वृत्र |
अभ्र | फलिग | वृष्टिमत् |
उदबाह | मेघ | व्योम |
घन | वल | व्रज |
जीमूत | विद्युत् | |
[अथर्ववेद] | ||
उदवाह | जीभूत | सत्रासह |
घनाघन | सत्रादावन् | स्तनयित्नु |
* हि खूण असलेले शब्द पर्वत या अर्थाचेहि वाचक आहेत. |
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x ही खूण असलेल्या शब्दांचा निगम अन्वेषणीय आहे असें देवराज यज्वा यानें निरुक्तावरील निर्वचन नामक टीकेंत लिहिलें आहे. |
१कोश.-ॠग्वेदांत रथाचा मुख्य भाग. बहुतकरुन हा भाग आंसाला बाधलेला असावा. परंतु तो फारसा मजबूत नसावा कारण असें म्हटलें आहे की पूषन्च्या रथाचा कोश पडत नाही. कोश बांधण्याकरितां जे दोर घेत असत त्यांचा उल्लेख 'अक्षा-नह' ह्यांत आला आहे. लक्षणे (अलंकार) नें हा शब्द सर्वच रथ दाखवितो असें मॅकडोनल म्हणतो. ॠ.१.८७,२ या ठिकाणीं कोश या शब्दाचा अर्थ सायणाच्या मताप्रमाणें 'मेघ' असा होतो.
२धनु.- 'भाटी' वाळवंट हा शब्द ॠग्वेदांत अनेक वेळां पण आकाशांतल्या ढगासंबंधानें अलंकारिक भाषेंत फक्त एकदांच आलेला आहे. अथर्ववेदांत धनु हा शब्द आलेला आहे व त्याचा अर्थ रक्तस्त्राव बंद करण्याकरितां उपयोगी पडणारें वाळूचें पोंतें असा दिसतो.
३मेघ.- हा शब्द ॠग्वेदांत आणि नंतरच्या ग्रंथांत ढग या अर्थानें आला आहे.
४शिरिंबिठ.- ॠग्वेदामध्यें एका लेखांत हा शब्द आलेला असून त्याचा अर्थ एका माणसाचें नांव असा असावा. अनुक्रमणी मध्यें ज्या सूक्तांत हें नांव आलेलें आहे तें सूक्त या नांवाच्या माणसानें रचिलें असें म्हटलेलें आहे. यास्क याचा अर्थ ढग असा करितो.
५स्तनयित्नु.- एकवचनी व अनेकवचनी. ॠग्वेदापासून पुढील ग्रंथांत याचा घनगर्जना असा अर्थ आहे.