प्रस्तावनाखंड : विभाग तिसरा. बुद्धपूर्वजग
प्रकरण ५ वें.
वेदकालांतील शब्दसृष्टि.
मार्गसंबंधी (ॠग्वेद)
अतूर्तपथिन् | दीर्षयाथ | योजन |
अनपवृज्य | नियान | रघुगर्तनि |
अंजस् | पत्मन् | रजस् |
अध्वन् | पत्वन | रथ्य |
अनुपथ | पत्सुतःशीः | रुद्रवर्तनि |
अनुक्षर (निष्कंटक) | पथ | वक्मन् |
पथिन् | वयुन | |
अन्तःपथ | पष्य | वर्तनि |
अरेणु | पदवी | वर्त्मन् |
अपाथ | पदवीय | विपथि |
आपथि | पदि | वृजिनवर्तनि |
उरुगव्यूति | पन्थस् | संगमनी |
ॠजु | परिगव्यूति | संचरणी |
एम | परिक्रोश | सुकृत |
क्षेत्रवित्- (वाटाडया) | परिज्मन् | सुग |
पांसु | सुगेवृध | |
गातु | पुरुपथिन् | सुपथिन् |
गायत्रवर्तनि | १प्रपथ | सुपदी |
घूतवर्तनि | प्राध्वन् | हिरण्यवर्तनि |
(तै.सं.) | ||
अनुवर्त्मन् | दर्शकः) | रेणु |
अपथ | वरिरष्य (रस्ता) | वर्त्र (मार्ग) |
अभ्यध्य | वांसु | वर्त्मन् |
कण्टक | प्रतिवर्त्म | वर्त्मन्य |
जनायन | प्रपथ | वधूपथ (वधूचामार्ग) |
दुष्पद | प्रस्तर | |
पथ | जान | वायुमत् |
पथिरक्षि | रथुवर्तनि | व्यण्व |
पथिसदी | रजस् | सृपथ |
पदनाम(मार्ग | रथ्या | स्वरितवाहन |
१प्रपथ- ॠग्वेद आणि ऐतरेय ब्राह्मण यांत याचा अर्थ ‘दूरचा प्रवास’ असा आहे. विल्सनला एके ठिकाणीं हा शब्द ‘उतरण्याची जागा’ या अर्थानें आढळला आहे. या ठिकाणीं प्रवाशांनां खादि (अन्न) मिळत असे. झिमर म्हणतो कीं, हा अर्थ होणें शक्यच नाहीं . व त्याच्या मतानें ‘प्रपदेशु’ च्या ठिकाणीं चुकीनें ‘प्रपथशु’ हा पाठ येथें घातला गेला आहे. काठक संहितेंत या शब्दाचा अर्थ ऐसपैस मोठा रस्ता असा आहे. सायणानें प्रपथ याचा अर्थ मोठा मार्ग, लांबलचक रस्ता असा दिला आहे. यावरून पुढें दूरच प्रवास असा ह्याचा अर्थ घेणें शक्य आहे. ॠ. १. १६६ ९ या ठिकाणीं येणा-या प्रथम शब्दाचा अर्थ सायणानेंहि विल्सन सारखाच दिला आहे.