प्रस्तावनाखंड : विभाग तिसरा. बुद्धपूर्वजग
प्रकरण ५ वें.
वेदकालांतील शब्दसृष्टि.
पिशाच [ॠग्वेद]
| पिशाचि | ||
| [तै. सं.] | ||
| १पिशाच | ||
| [अथर्ववेद] | ||
| अघरुद | बंधक) | अपाकेष्ठ (पाकशालास्थ) |
| अघविष | अलिक्लव | |
| अचिन् | आषाहळ | उदुंबर |
| अनागोहत्या (कृत्या) | अष्टापदी | उरुण्ड |
| अनागम | असमृद्धि (कृत्या) | एकवादी |
| अयाशु | आंगिरसी (कृत्या) | ककुभ |
| अराटकी | आण्डाद | करुमा |
| अराय (दानप्रति- | आतोदिन् | कुकुन्ध |
| कुकूरभ | दुर्णाम्री | लपित |
| कुक्षिल | द्विजिहृा | लीशाथा |
| कुचर | व्द्यास्य | लोहितास्य |
| कुणप | धूमाक्षी | वलग |
| कुनखि | धृष्णु | वलगिन् |
| कुपायकु | नस्वती | विकेश्य |
| कुंभमुष्क | निर्दहनी | विग्रीवस |
| कुल्मल | नि:साला | व्यैलब (चमत्कारिक व्यैलब (चमत्कारिक |
| कुसूल | पंचपाद | |
| कूल्वजमावृता | पश्चात्प्रपद | शकधूमज |
| कृत्या | पुर:पार्ष्णि | शकंभरस्य मुष्टिहन् |
| कृधुकर्णी (डोळे व कान बंद करणारी) |
पुरोमुख | |
| पृषातकी | शकुल | |
| प्रहासिन् | शपथेय्य | |
| कृपणा | फलिग | शाल |
| कृष्णा | शीर्षण्वती (कृत्या) | |
| केशव | बस्तवासिन् | शूद्रकृता (कृत्या) |
| क्लन्दा | वस्ताभिवासिन् | सदान्वस् |
| क्लीबाइव प्रनृत्यन्त | ब्रह्मभि:कृता (कृत्या) | सदान्वाक्षयण |
| खर्ववासिनी | २मकक | सुलाभिक |
| खलज | ३मगुधी | स्तंबे ये कुर्वते |
| गर्दभनादिन् | मगुन्धी | (ज्योतिस् ) |
| ग्राहि | मट्मट | स्त्रिम |
| तिरीटिन् | मूलि | स्त्रीकृता |
| तौविलिका | यातूधान | स्वयंकृत |
| दुर्गन्धि | राजकृता | हस्ते शृंगाणि बिभ्रत् |
१पिशाच :- ॠग्वेदांत हा शब्द पिशाचि या रुपांत एकदा (१.१३३,५) आला आहे. अथर्ववेद व तदुत्तर ग्रंथांत उल्लेखिलेल्या राक्षसांपैकी एका जातीचें हें नांव आलेलें आहे. तैत्तिरीय संहितेंत त्याचा संबंध राक्षस व असुर यांच्याशीं लावला आहे व ते देव, मनुष्ये व पितर यांच्या विरुद्ध असत असें म्हटलें आहे. अथर्ववेदांत त्यांना कच्चें मांस खाणारे म्हणजे क्रव्याद असें म्हटलें आहे व याच व्युत्पत्तिशास्त्रदृष्टीनें पिशाच शब्द झाला असावा. ग्रिअर्सन म्हणतो त्याप्रमाणें पिशाच लोक मानवांचे शत्रू असून तें हिंदुस्थानाच्या वायव्य सरहद्दीवर राहणा-या लोकांप्रमाणें असावेत. कारण हे सरहद्दीवरील लोक बरेच दिवसपर्यंत कच्चें मांस खाणारे (कदाचित् हे नरमांसभक्षक नसतील परंतु यज्ञाच्या वेळीं नरमांस भक्षण करणारें असूं शकतील) म्हणून प्रसिद्ध होते. पण ही विचारसरणी चुकीची दिसते. हे पिशाचलोक म्हणजे काल्पनिक मनुष्योपजीवी भुतें असावींत. जेव्हां ते मनुष्यजाति म्हणून उल्लेखिले जातात तेव्हां त्यांना मुद्दाम तिरस्कारानें पिशाच हें नांव दिलेलें असतें. मागाहूनच्या वैदिक कालांत पिशाचवेद किंवा पिशाचविद्या म्हणून प्रसिद्ध आहे.
२मकक:- अथर्ववेदांत हा शब्द एकदांच आला आहे व तो कोणत्या तरी अज्ञात प्राण्याचा वाचक आहे. कदाचित् विशेषणार्थीहि असूं शकेल व त्याचा अर्थ बें बें करणें असा असावा.
३मगुधी:- दुष्परिणामास हांकून लावणें या अर्थी अथर्ववेदांतील एका ॠचेंत हा शब्द आला आहे. तेथें या नावाच्या साथीचा उल्लेख केला आहे. या ॠचेच्या प्रभावानें मगुधी कन्यांनां गोठा, गाडा आणि घर यांपासून हांकून लावतां येतें. आतां मगुधी हा कोणी प्राणी, जंतु अथवा ही राक्षसी हें निश्चित सांगतां येत नाही.
