प्रस्तावनाखंड : विभाग तिसरा. बुद्धपूर्वजग
प्रकरण ५ वें.
वेदकालांतील शब्दसृष्टि.
ध्वनिवाचक [ॠग्वेद]
अजमायु (शेळींप्रमाणें शब्द करणारा मण्डूक) | जंजती | रव |
जस्वन | रवथ (गर्जयितृ) | |
तनयित्नु | रुवण्यु | |
अभिक्रन्दन् | तभ्यत् | वक्करी |
अभिस्तन (सिंह-नाद) | तन्यु | वग्वनु |
तुविग्र | वातस्वन | |
अभिस्वर | तुविरव | वावशन |
अर्हारस्वनिी | दुर्मायु | वाश्र |
अलल ( आनंददायक) | धमनि | विरप्श |
आघोषयत् | नदनु | विरव |
आपिब्दमान | नदयत् | स्तनयन्ती |
उपब्द ( अभिषव शब्द) | नाद | स्तनयित्नु |
नानदत् | स्वन | |
कामकाति ( कामपरशब्द) | निघोषयत् | स्वाब्दि |
निविविध्वत् | स्वरि | |
क्रन्दन् | निस्वर | स्वान |
क्रोशन् | पर्जन्यक्रन्घ | हासमान |
क्षु | प्रस्वनित | हेषक्रतु ( सिहाप्रमाणे गर्जना करणारा ) |
धर्मस्वरस् | मन्द्र | |
घोष | महिस्वनी | |
जंजणाभवन् | मायु | हेषत् |
( तै. सं) | ||
अक्रन्द | घोष | वातस्वन |
अभिक्रन्द | तनयित्नु | वाश्र |
आक्रोश | नानदत् | स्तनयित्नु |
उपद्विमत् | पर्जन्यक्रंद्य | स्तनयन्निब |
कामकाति | मंद्र | स्वन |
कंदन् | रव | |
[अथर्ववेद ] | ||
अलुलय (वीरघोषाचें अनुकरण ) | ऊर्ध्वमायु | क्रदीवत् (संभोगार्थं आह्यान) |
काहाबाह | ||
कूजत् | क्षुमत् | |
गर्गर | माक्रदत् | रोरुवत् |
दविध्वत् | मायु | वाश्रा |
ध्वनि | रव | विरव |
नदनु | रुत | सूनृतावत् |
पद्धोष | ||
शब्दवाचक [तै.सं.] | ||
अतिवाद | ध्वान्त | संक्रन्दन |
अवक्रन्द | मस्मसा | संक्रोश |
आहल | रव | स्तन |
उच्चार | वातस्वन | स्वन |
घनाघन | वाश्रा | स्वरण |
घोष | शूकार | |
ध्वनिविषयक विशेषणें [अथर्ववेद ] | ||
उक्त | प्रबुवाण | सुहव |
उक्थिन् | प्रवद | स्तनयत् |
उचैर्धोष | भन्दिष्ठ | स्फूर्जती |
दुष्टनु | रपत् | स्वरयत् |
धमत् | रराण | हिङ्करिकृती |
धीत | रासमाना | हुत |
नानदत् | रिफती | हूत |
निरभण | रुदती |
ध्वनिवाचक शब्दांचें निरीक्षण केलें असतां असें दिसून येतें कीं भौतिक ध्वनि, पशुध्वनि आणि मनुष्यध्वनि या सर्व प्रकारच्या ध्वनींचे बोधक शब्द वेदांत आहेत. मनुष्यध्वनिवाचक शब्दांमध्यें निरनिराळे मनोविकार ज्या ध्वनींपासून व्यक्त होतात त्यांस स्वतंत्र शब्द आहेत, निरनिराळें विचार आणि भावना व्यक्त करण्याच्या प्रयोजनामुळें वेदभाषा बरीच प्रगल्भ झाली होती यास विशिष्ट ध्वनीच्या व्यंजनेसाठीं विशिष्ट शब्दांचें अस्तित्व हें प्रमाण आहे. यांत सामवेद उर्फ संगीतशास्त्र यांतील संज्ञांचा बोधक अशा मंद्र शब्दाखेरीज दुसरा शब्द सांपडत नाही. आणि मंद्र हा शब्द देखील संज्ञापद पावला होता याला प्रमाण नाही. यावरुन असें दिसतें कीं वेदमंत्रकालीं गाणीं असावींत, चाली असाव्यात पण त्यांस शास्त्रीय व्यवस्था देण्याचा प्रयत्न झाला नसावा.